रेबीज (हाइड्रोफ़ोबिया, Rabies )
पागल कुत्ते द्वारा काटे जाने से होने वाले घातक रोग को रेबीज कहते हैं. लैटिन भाषा में रेबीज का अर्थ है पागलपन. यह रोग एक विशेष प्रकार के वायरस रैब्डोवायरस द्वारा दिमाग का इन्फेक्शन होने पर होता है. रेबीज के मरीज को पानी निगलने में बहुत कष्ट होता है इसलिए वह पानी से डरने लगता है, इस कारण से इस रोग को हाइड्रोफोबिया (जल से भय) भी कहते हैं.
ऑस्ट्रेलिया व अंटार्कटिका के अतिरिक्त यह रोग दुनिया के लगभग सभी देशों में पाया जाता है. मनुष्यों में यह रोग अधिकतर कुत्ते द्वारा काटे जाने से होता है. इसके अन्य मुख्य स्रोत हैं बिल्ली, लोमड़ी, सियार, भेड़िया, नेवला, स्कंक, रकून व वैंपायर चमगादड़. लगभग सभी स्तनपाई जीव (mammals) रेबीज का शिकार हो सकते हैं, अर्थात गाय, भैंस, घोड़ा, उंट, बंदर, हाथी इत्यादि सभी को रेबीज होने का खतरा होता है.
जब किसी जानवर को रेबीज होती है तो उसकी लार में रेबीज के वायरस अत्यधिक मात्रा में पाए जाते हैं. ऐसा कोई जानवर यदि किसी मनुष्य या अन्य पशु को काट लेता है तो उसकी लार के साथ यह वायरस घाव में पहुंच जाते हैं. खाल में उपस्थित नर्व्स (nerves) में प्रवेश करके उनके भीतर ही भीतर बढ़ते हुए यह वायरस दिमाग तक पहुंच कर रेबीज इन्सेफेलाइटिस उत्पन्न करते हैं. दिमाग में वायरस पहुंचने के बाद यह रोग लगभग लाइलाज है व इससे इंफेक्टेड मनुष्य या पशु की लगभग 1 सप्ताह के भीतर ही मृत्यु हो जाती है.
नर्व्स से होकर दिमाग तक पहुंचने में वायरस को औसतन 1 से 2 महीने का समय लगता है. सर के आस-पास के घाव से 7 दिन में ही वायरस दिमाग तक पहुंच सकता है, जबकि पैर की मामूली खरोच से उसे दिमाग तक पहुंचने में 1 साल से भी ज्यादा समय लग सकता है.
मनुष्य में रेबीज के लक्षण : वायरस के नर्व्स में से होकर दिमाग में पहुंचने तक कोई लक्षण पैदा नहीं होता. जब वायरस दिमाग में पहुंच जाता है तभी बीमारी के लक्षण सामने आते हैं. बहुत से मरीजों को कुत्ते काटे के स्थान पर झनझनाहट व मांसपेशियों का फड़कना महसूस होने लगता है, जबकि घाव काफी पहले भर चुका होता है. मरीज को अजीब सी घबराहट होने लगती है व उसके व्यवहार में बदलाव आने लगता है. मरीज में उत्तेजना, चिड़चिड़ाहट, झगड़ालू पन, अजीब विचार आना, मांसपेशियों का ऐठना, दौरे पड़ना, किसी अंग पर लकवा मार जाना, तेज बुखार, मुंह से लार व झाग आना इत्यादि लक्षण हो सकते हैं. धीरे-धीरे मरीज बेहोशी की हालत में पहुंच जाता है व उसकी मृत्यु हो जाती है.
बहुत से मरीजों में हाइड्रोफोबिया का खास लक्षण मिलता है. इसमें मरीज को पानी पीने की कोशिश करने पर गले व छाती की मांसपेशियों में बहुत दर्द होता है जिससे वह पानी से डरने लगता है. बहुत से मरीज केवल पानी देखकर या पानी गिरने की आवाज सुनकर डरने लगते हैं. कुछ मरीजों को हवा से भी परेशानी होती है.
कभी-कभी रेबीज में यह सब लक्षण नहीं मिलते. कुछ मरीजों को पहले पैरों में लकवा मार जाता है और फिर लकवे का असर धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ता है. 10 – 12 दिन में रोगी की मृत्यु हो जाती है. ऐसे कैसेज़ में बिना दिमाग की बायोप्सी किए रेबीज की डायग्नोसिस लगभग असंभव होती है. इसलिए यह नियम बनाया गया है कि यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु इस प्रकार के लक्षणों के साथ होती है तो उसके किसी अंग जैसे कॉर्निया, गुर्दे या लिवर आदि को किसी दूसरे व्यक्ति में प्रत्यारोपित नहीं करते हैं क्योंकि इससे रेबीज फैल सकती है.
रेबीज का रोग कई प्रकार से फ़ैल सकता है
- जिस जानवर को रिलीज हो उसके द्वारा कट जाने पर.
- किसी खरोंच या घाव पर रेबीज से इंफेक्टेड जानवर या मनुष्य की लार लग जाने पर.
- रेबीज से ग्रसित गाय या भैंस का बिना उबाला दूध पीने से (यदि पीने वाले के मुंह या खाने की नली में छाले हों).
- रेबीज से मरने वाले रोगी का कोई अंग (कॉर्निया, गुर्दा, लिवर आदि) किसी व्यक्ति में प्रत्यारोपित (transplant) करने से.
रेबीज से इंफेक्टेड जानवर को थपथपाने से या उसके मल-मूत्र अथवा खून के संपर्क में आने से रेबीज का खतरा नहीं होता. चूहे, गिलहरी व खरगोश के काटने से भी रेबीज का खतरा नहीं के बराबर होता है.
रेबीज से बचाव के लिए उपचार : रेबीज के वायरस के लिए कोई विशिष्ट दवा नहीं है. इसलिए घाव की सफाई बहुत महत्वपूर्ण है जिससे अधिक से अधिक वायरस घाव से निकल जाएँ. इसके अतिरिक्त रेबीज के टीके लगाए जाते हैं जो कि शरीर में रेबीज के विरुद्ध एंटीबॉडीज़ उत्पन्न करते हैं. ये एंटीबॉडी रेबीज वायरस को मारने में सक्षम होती हैं.
घाव का उपचार : कुत्ते या किसी अन्य संदिग्ध पशु द्वारा काटे के घाव हो बहते पानी पर साबुन से खूब अच्छी तरह से धोना चाहिए. घाव में मिर्च आदि कभी न भरें. भली प्रकार से धोने के बाद घाव पर स्पिरिट या बीटाडीन लगाना चाहिए. इस प्रकार के घावों में आमतौर पर टांके नहीं लगाए जाते हैं.a डॉक्टर की सलाह लेकर टिटनेस का टीका व आवश्यक दवाएं ले लेनी चाहिए घाव पर कार्बोलिक एसिड ना लगाएं.
रेबीज के टीके : रेबीज से बचाव के लिए मूलतः दो प्रकार के टीके उपलब्ध हैं –
- टिशू कल्चर वैक्सीन ये टीके थोड़े महंगे पर बहुत असर कारक व लगभग हानि रहित हैं. इनके पांच या छह टीके बांह के ऊपरी हिस्से में लगाए जाते हैं.
- रेबीज इम्युनोग्लोबुलिन रेबीज वैक्सीन हमारे शरीर में एंटीबॉडीज का निर्माण करती है लेकिन इस प्रक्रिया में लगभग 15 दिन का समय लगता .है सर के पास के घावों व कहीं के भी गहरे घावों में यह समय खतरनाक हो सकता है इसलिए इस प्रकार के घावों में पहले से ही तैयार एंटीबॉडीज के इंजेक्शन लिए जाते हैं. ये रेबीज इम्मुनोग्लोब्युलिन (RIG) नाम से मिलते हैं इनका आधा भाग घाव के आसपास व आधा भाग कूल्हे में लगाया जाता है.
टीके लगवाने के संबंध में सामान्य जानकारी : टिशू कल्चर वैक्सीन के पांच टीके बांह के ऊपरी हिस्से में लगाए जाते हैं. कुत्ता काटने के बाद टीके लगवाना जल्दी से जल्दी शुरू कर देना चाहिए. यदि किसी कारण से कुछ दिन देर भी हो जाए तब भी टीके लगवा सकते हैं. जिस दिन पहला टीका लगे उस दिन से गिनना आरंभ करके दूसरा टीका उसके 3 दिन बाद, तीसरा टीका 7 दिन बाद, चौथा टीका 14 दिन बाद वह पांचवां टीका 30 दिन बाद लगाया जाता है. यदि घाव अधिक गंभीर हो या किसी कारण से रोगी की प्रतिरोध क्षमता कम हो तो एक अतिरिक्त छठा टीका 90 दिन बाद लगाते हैं. ऐसा कोई टीका नहीं है जिसके केवल एक या दो इंजेक्शन लगते हो.
मलेरिया की दवा क्लोरोक्वीन व अनेक गंभीर रोगों के इलाज में प्रयोग होने वाली स्टेरॉयड दवाएं जैसे बेटनेसोल, डेकाड्रोन आदि खाने से रेबीज के टीकों का असर कम हो जाता है. हकीमों की दवाओं में भी अक्सर स्टेरॉयड मिले होते हैं. इसलिए टीके लगवाने के दौरान किसी भी दवा का प्रयोग योग्य डॉक्टर की सलाह ले कर ही करें. अल्कोहल भी इस टीके के असर को कम करता है इसलिए टीके लगने के दौरान व उसके 1 महीने बाद तक शराब का सेवन न करें.
टीके लगवाने की परिस्थितियां : जिन लोगों को जानवरों द्वारा काटे जाने का खतरा अधिक होता है (जैसे पशु चिकित्सक, जंगल में काम करने वाले लोग, डॉग क्रैश या डॉग स्पा कर्मचारी आदि)) उन्हें रेबीज से बचाव के लिए पहले से ही टीके लगवा लेना चाहिए.इसके लिए टीके 0,7 व 21 या 28 दिन पर लगाए जाते हैं. इसके 1 साल बाद बूस्टर और फिर हर 3 साल पर एक बूस्टर लगाए जाते हैं. इस प्रकार के व्यक्ति को यदि कोई रेबीज से इंफेक्टेड जानवर काट ले तो तीन दिन के अंतराल पर केवल दो टीके लगवाना ही पर्याप्त रहता है.
कोई अनजान कुत्ता बिल्ली या जंगली जानवर यदि अकारण ही किसी व्यक्ति को काट कर भाग जाए तो ऐसे में रेबीज का खतरा अधिक होता है. इस प्रकार के घाव का उपरोक्त विधि से उपचार करके उसी दिन से एंटी रेबीज वैक्सीन लगवाना आरंभ कर देना चाहिए. घाव यदि बड़ा हो या सिर के पास हो तो आरंभ में ही एंटी रेबीज इम्यूनोग्लोब्युलिन भी लगवा लेना चाहिए. बंदर द्वारा काटे जाने पर रेबीज की संभावना बहुत कम होती है पर क्योंकि इस बीमारी में थोड़ा सा भी रिस्क नहीं लिया जा सकता इसलिए टीके लगवा लेना चाहिए.
यदि कोई पालतू कुत्ता या बिल्ली (या गली मोहल्ले में रहने वाला पहचाना हुआ कुत्ता) किसी व्यक्ति को काट ले तो घाव का ठीक से उपचार करके एक टीका उसी दिन व दूसरा टीका 3 दिन बाद लगवा लेना चाहिए. तीसरे टीके की बारी 7 दिन बाद आती है. यदि उस समय तक वह जानवर बिल्कुल ठीक है तो तीन दिन तक उसे और वॉच करना चाहिए. यदि उसके बाद भी वह कुत्ता या बिल्ली ठीक रहता है तो आगे टीकों की कोई जरूरत नहीं है. यदि इस बीच में वह मर जाता है, गायब हो जाता है या उसमें कोई गलत लक्षण दिखाई देने लगते हैं तो चार टीके और लगवाकर छह टीके का कोर्स पूरा कर देना चाहिए..
बहुत बार पालतू कुत्ते घर के सदस्यों या आने जाने वालों के हाथ या पैर में हल्का सा दांत या पंजा मार देते हैं. ऐसे में यदि कुत्ते को वैक्सीन लगे हैं व उसके अंदर कोई असामान्य लक्षण नहीं दिखाई दे रहा है तो घाव का भली-भांति उपचार करके उस कुत्ते पर निगरानी रखना काफी है. यदि 10 दिन तक कुत्ता ठीक रहता है तो कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है. यदि इस बीच में कुत्ता मर जाए, गायब हो जाए या उसमें कोई गलत लक्षण दिखाई देने लगे तो तुरंत टीके लगवाना शुरू कर देना चाहिए.
विशेष परिस्थितियां : नवजात शिशु, गर्भवती महिलाएं व अन्य रोगों से ग्रसित रोगियों आदि सभी में रेबीज के टीके लगाए जा सकते हैं. यदि रोगी लिवर सिरोसिस, एड्स या कुपोषण से ग्रस्त हो, या वह स्टेरॉयड अथवा क्लोरोक्वीन खा रहा हो, या घाव गंभीर हो लेकिन एच आर आई जी उपलब्ध ना हो तो पहले दिन एक के स्थान पर दो टीके लगाने चाहिए (प्रत्येक बांह में एक).
अंधविश्वासों से बचें : हमारे समाज में रेबीज के विषय में बहुत से अंधविश्वास फैले हुए हैं. जहां एक और पढ़े लिखे लोग बेवजह डर के कारण जरूरत ना होने पर भी टीके लगवा लेते हैं वहीं दूसरी ओरअनपढ़ व ग्रामीण लोग झाड़ फूंक व देसी दवाओं के चक्कर में पड़ कर टीके नहीं लगवाते हैं और रेबीज से जान गवा देते हैं. इस विषय में समझने लायक बात यह है कि काटने वाले कुत्तों में 95% रेबीज से ग्रस्त नहीं होते. उनके काटने से वैसे ही खतरा नहीं होता है. अंधविश्वासी लोग समझते हैं की झाड़ फूंक यह देशी दवा के कारण उनको रेबीज नहीं हुई. जिस किसी को वास्तव में पागल कुत्ते ने काटा होता है और वह देसी दवाओं के चक्कर में टीके नहीं लगवाता है वह बेचारा बेमौत मारा जाता हैऔर यह कहने के लिए बचता ही नहीं है कि उसके साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है. अर्थात समाज में ऐसा कहने वाले बहुत लोग होते हैं कि उन्हें देसी दवा से या झाड़ फूँक से फायदा हुआ और यह कहने वाला कोई होता ही नहीं है कि इन सब फ्रॉड के कारण वह बेमौत मारा गया.
रेबीज जैसे जानलेवा रोग को कंट्रोल करने के लिए यह जरूरी है आवारा कुत्ते बिल्लियों की संख्या कम की जाए व पालतू कुत्तों को अनिवार्य रूप से टीके लगाये जाएं..