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सम्पादकीय लेख Archive

सम्पादकीय (EDITORIAL)
1. चिकित्सा जगत में ‘Antibiotic resistance’ (कीटाणुओं पर दवाओं का असर न होना) आज के युग की सबसे कठिन समस्याओं में से एक है. एंटीबायोटिक्स का अनावश्यक प्रयोग और आधी अधूरी डोज़ इसका सबस मुख्य कारण है. सभी विकसित देशों में एंटीबायोटिक्स केवल डॉक्टर्स के प्रेस्क्रिप्शन पर ही मिलती हैं, लेकिन हमारे देश में गली मुहल्लों में खुले मेडिकल स्टोर्स से आप कोई भी दवा कितनी भी मात्र में खरीद सकते हैं.
एंटीबायोटिक्स के गलत प्रयोग का एक बहुत बड़ा कारण है विडाल टेस्ट. इस टेस्ट पर बिलकुल विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि यह अधिकतर स्वस्थ लोगों में भी पॉजिटिव आता है. जिन डॉक्टर्स को इस बात की जानकारी नहीं है वे बिना उचित कारण के इस टेस्ट को करा लेते हैं और इसके पॉजिटिव आने पर अनावश्यक एंटीबायोटिक्स देते रहते हैं. चिकित्सा विज्ञानं की नियामक एजेंसीज को चाहिए कि इस टेस्ट को फौरन प्रतिबंधित कर दें.

2. आयुर्वेद के प्रति हमारे देश के लोगों में बहुत सम्मान है. यह सम्मान इस हद तक है कि लोग आयुर्वेद पर अंधविश्वास करते हैं. लोगों का मानना है कि आयुर्वेदिक दवाओं से साइड इफेक्ट नहीं होते और बीमारी जड़ से ठीक हो जाती हैं. आयुर्वेद अपने आप में विज्ञान की एक शाखा है, लेकिन किसी भी विज्ञान पर अंधविश्वास करना ठीक नहीं है. आयुर्वेद में जो भी दवाएं हैं और उपचार की विधियां हैं उन पर रिसर्च होनी चाहिए. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान चिकित्सा की सभी विधाओं को समावेशित कर केचलता है बशर्ते किउनका ठीक से अध्ययन किया जाए और उनको स्टैटिसटिक्स की कसौटी पर कस कर देखा जाए. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में प्रयोग होने वाली बहुत सी दवाएं पेड़ पौधों से बनती है लेकिन उन पर विस्तृत अध्ययन करने के बाद. आयुर्वेद पर लोगों के इस अंधविश्वास का फायदा उठा कर बहुत से ठग लोग आयुर्वेद के नाम पर एलोपैथिक दवाओं का धंधा कर रहे हैं. बहुत से हकीम गठिया और सांस की दवाओं के नाम पर स्टेरॉयड दवाएं दे रहे हैं. कोई कोई हकीम डायबिटीज की आयुर्वेदिक दवा के नाम पर डाओनिल की गोली पीसकर दे रहे हैं. हमारे यहां डॉक्टरों के खिलाफ तो बहुत से कानून है लेकिन इन ठगों के खिलाफ कोई कानून नहीं है. डॉक्टर्स के पास रोज ही ऐसे मरीज आते हैं जिन्हें जड़ी बूटियों से बनी या भस्मों से बनी दवाओं से गंभीर साइड इफ़ेक्ट होते हैं. बहुत से ऐसे मरीज भी आते हैं जो आयुर्वेदिक के धोखे में तेज एलोपैथिक दवाओं की बहुत हाई डोज़ ले रहे होते हैं जिससे उन्हें बहुत नुकसान होता है.

3. हम सभी लोगों को यात्रा के दौरान या दावत इत्यादि में कभी ना कभी घर से बाहर खाना खाना पड़ता है। इस प्रकार के खाने से इंफेक्शन होने की संभावना हमेशा रहती है. यदि घर से बाहर कभी कुछ खाना पड़े तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जो भी चीजें बिना उबाली हुई होती हैं उनसे इंफेक्शन होने का डर होता है . सभी प्रकार के जूस, शेक, शिकंजी, गन्ने का रस, लस्सी, मट्ठा, चटनियां, सलाद, नल का पानी या कंटेनर वाला पानी, कटे हुए फल, साबुत खाए जाने वाले फल (जैसे अंगूर, जामुन, आढू, ककड़ी, अमरुद आदि) से इन्फेक्शन का डर होता है.
जो फल छिलका उतार कर खाए जाते हैं उनसे इंफेक्शन की संभावना बहुत कम होती है (जैसे केला, पपीता, खरबूजा, संतरा आदि). यदि बाहर कभी पानी पीना पड़े तो स्टैण्डर्ड कम्पनी का मिनरल वाटर ही पीना चाहिए. मिनरल वाटर की बोतल की सील जरूर चेक कर लेना चाहिए. यदि मिनरल वाटर न मिले तो गहरे वाले सरकारी हैंडपंप, जेट पम्प या ट्यूब वैल का पानी पिया जा सकता है.
होटलों के मुकाबले ढाबों के खाने से इन्फेक्शन का डर कम होता है क्योंकि उन में से अधिकतर में रोज ताजा खाना बनता है. ताजी सिकी रोटी और तेज गर्म दाल व सब्जी से इन्फेक्शन का डर सबसे कम होता है.

4. हमारे देश में स्थान स्थान पर गैर कानूनी रूप से मेडिकल स्टोर खुले हुए हैं जहाँ से कोई भी दवा कितने भी समय के लिए खरीदी जा सकती है. अधिकतर सभ्य देशों में कुछ दवाएं OTC कैटेगिरी में रखी जाती हैं, जैसे खांसी जुकाम कि दवाएँ, हलकी दर्द निवारक दवाएँ, बुखार के लिए पेरासिटामोल, चोट पर लगाने कि दवाएँ आदि. लेकिन हमारे यहाँ गंभीर बीमारियों की दवाएँ, एंटीबायोटिक्स, स्टेरॉयड दवाएँ और मानसिक रोग कि दवाएँ तक इन मेडिकल स्टोर्स पर खुलेआम मिल जाती हैं. अधिकतर मेडिकल स्टोर वाले मेडिकल प्रैक्टिस भी करते हैं अर्थात वे मरीजों का इलाज भी करते हैं. यह एक बहुत खतरनाक स्थिति है.
इस प्रकार कि प्रैक्टिस कई प्रकार से लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करती है. इन में से एक बहुत महत्वपूर्ण खतरा इस बात का होता है कि एंटीबायोटिक्स का प्रयोग आधी अधूरी डोज़ में और कम समय के लिए किया जाता है. इससे अब बीमारी पैदा करने वाले अधिकतर बैक्टीरिया दवाओं से रेसिस्टेंट हो गये हैं. टाइफाइड, मलेरिया, न्यूमोनिया, यूरिन इन्फेक्शन जैसे सामान्य इन्फेक्शन भी अब आसानी से ठीक नहीं होते हैं. टीबी कि बीमारी में तो यह दृश्य और भी भयावह है. टीबी के बहुत से कीटाणु टीबी की अधिकतर दवाओं से रेसिस्टेंट हो गये हैं.
दवाओं से रेजिस्टेंस का एक कारण और भी है. बहुत से मरीजों को सांस कि परेशानी, गठिया या कुछ एलर्जी सम्बन्धी बीमारियों के लिए कुछ समय के लिए स्टेरॉयड दवाएँ दी जाती हैं. क्योंकि इन दवाओं से तुरंत लाभ होता है और छोड़ने पर एकदम से परेशानी होने लगती है इसलिए बहुत से मरीज़ डॉक्टर से सलाह लिए बिना मेडिकल स्टोर से खरीद कर इन दवाओं को लम्बे समय तक खाते रहते हैं. अधिक डोज़ में और अधिक समय तक खाने पर ये शरीर कि रोग प्रतिरोध क्षमता (immunity) को खत्म कर देती हैं. इस प्रकार के रोगियों में भी एंटीबायोटिक्स काम नहीं करतीं और बैक्टीरिया रेजिस्टेंट हो जाते हैं. बहुत से ठग टाइप के हकीम, वैद्य और देसी इलाज करने वाले भी अपनी पुड़ियों में स्टेरॉयड दवाएँ पीस कर डालते हैं. बेचारा मरीज यह समझ कर कि ये आयुर्वेदिक दवाएँ हैं और इनसे कोई साइड इफ़ेक्ट नहीं होगा उन्हें लम्बे समय तक खाता रहता है और अपने शरीर का सत्यानाश कर लेता है. इन सब खतरों से बचने के लिए दवाओं की बिक्री के लिए कड़े कानून बना कर उनका कड़ाई से पालन कराए जाने कि आवश्यकता है.

5. हमारे देश में त्वचा (खाल, skin) कि बीमारियों को बढाने में दो चीजों का विशेष योगदान है – एक डेटाल लिक्विड व साबुन (Dettol liquid & soap) और दूसरी Quadriderm cream (या इस से मिलती जुलती स्टेरॉयड मिली हुई अन्य स्किन क्रीम्स. हमारे यहाँ अधिकतर लोग त्वचा की किसी भी बीमारी में डेटोल का प्रयोग करते हैं. डेटोल का प्रयोग केवल उन्हीं मरीजों को करना चाहिए जिनकी त्वचा में बार बार कीटाणुओं से इन्फेक्शन होता है. डेटोल क्योंकि कीटाणु नाशक है इसलिए यह त्वचा पर रहने वाले कीटाणुओं की संख्या को कम करता है. इससे बैक्टीरियल इन्फेक्शन की संभावना कम हो जाती है. जिन लोगों को कोई एलर्जी है या फंगल इन्फेक्शन (दाद आदि) है उन्हें डेटोल से नुकसान होता है. इसके अतिरिक्त डेटोल चेहरे व जननांगों की कोमल त्वचा को भी नुकसान पहुँचा सकता है. डेटोल के प्रोडक्ट्स पर बड़ा बड़ा लिखा होना चाहिए कि इसका प्रयोग एलर्जी एवं फंगल इन्फेक्शन में न करें.
दूसरी ओर जो लोग फंगल इन्फेक्शन में Quadriderm जैसी क्रीम लगाते हैं उन्हें उस समय खुजली व जलन आदि में तुरंत आराम मालूम होता है लेकिन क्योंकि स्टेरॉयड दवाएँ इम्युनिटी को कम करती हैं इसलिए फंगल इन्फेक्शन और गहराई तक फ़ैल जाता है. साथ ही यह इन्फेक्शन दवाओं से रेसिस्टेंट हो जाता है, अर्थात जो इन्फेक्शन सही इलाज मिलने पर बहुत कम दवाओं से ही दो या तीन हफ्ते में ठीक हो सकता था वह महीनों तक बहुत अधिक दवाएँ लेने के बाद भी ठीक नहीं होता है. इस प्रकार कि स्टेरॉयड मिली स्किन क्रीमों पर तुरंत प्रभाव से रोक लगाईं जानी चाहिए.

6. हमारे देश में अधिकतर लोगों को यह अंधविश्वास है कि पेट की बीमारियाँ लिवर की कमजोरी से होती हैं. पाचन सम्बन्धी कोई भी परेशानी हो, लोग उसे लिवर से ही जोड़ कर देखते हैं. इस अंधविश्वास के कारण यहाँ लिवर को ठीक करने का दावा करने वाली अवैज्ञानिक देसी दवाओं की भरमार है. सच यह है कि पेट कि अधिकतर बीमारियों का लिवर से कोई संबंध नहीं होता. लिवर कि सबसे कॉमन बीमारी है वायरल हेपेटाइटिस. इस में भूख न लगना, बुखार आना, पीलिया आदि लक्षण होते हैं. अधिकतर मरीजों में यह अपने आप ठीक हो जाती है. कुछ लोगों में शराब का सेवन करने के कारण अल्कोहोलिक हेपेटाइटिस होती है. वे यदि शराब पीना छोड़ दें तो उन में भी लाभ हो जाता है. कुछ लोगों को दवाओं से हेपेटाइटिस होती है (drug induced hepatitis). टीबी कि दवाओं से विशेष रूप से इसके होने का खतरा होता है. उन दवाओं को बदलने से यह ठीक हो जाती है. कुछ विशेष प्रकार की हेपेटाइटिस होती हैं (जैसे हेपेटाइटिस बी, सी और ऑटोइम्यून हेपेटाइटिस आदि) इन सभी का विशेष दवाओं से इलाज करना होता है. इन में से किसी भी बीमारी में लिवर के नाम पर बिकने वाली ये देसी दवाएँ लाभ नहीं करतीं. दुःख कि बात यह है हमारे देश में इन बोगस दवाओं का अरबों रूपये का कारोबार है.
पेट की सबसे कॉमन समस्याएँ हैं भूख न लगना, पेट में भारीपन या पेट फूलना, पेट साफ़ न होना एवं दस्त होना. ये समस्याएँ आम तौर पर अधिक तेज़ाब बनने या इन्फेक्शन से होती हैं. लिवर से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता. IBS भी एक बहुत कॉमन बीमारी है जिस में आँतों की चाल गड़बड़ाने से कभी कब्ज व कभी दस्त हो सकते हैं. दूध के न पचने (lactose intolerance) से भी बहुत से लोगों को दस्त होते हैं. ये सभी परेशानियां अपने आप कभी कम व कभी ज्यादा होती रहती हैं. जो लोग देसी दवाएँ खाते हैं उन्हें यह धोखा होता है कि दवा खाने से उन्हें लाभ हो गया है. नियामक एजेंसीज को चाहिए कि लोगों के अंधविश्वास का लाभ उठा कर अनैतिक कारोबार करने वाली इन कम्पनियों पर लगाम लगाएँ. वास्तव में किसी भी दवा को विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरने के बाद ही बाजार में बेचने की अनुमति दी जानी चाहिए.
7. हमारे देश में सामान्य लोगों के भोजन में प्रोटीन की मात्रा बहुत कम है. विशेषकर शाकाहारी लोगों के भोजन में तो प्रोटीन बहुत ही कम होता है. प्रोटीन हमारे शरीर कि सरंचना का प्रमुख हिस्सा होते हैं. बचपन में शरीर की बढ़वार के लिए प्रोटीन आवश्यक हैं और बड़ा होने पर शरीर की मेंटेनेंस के लिए प्रोटीन की आवश्यकता होती है. इन्फेक्शन्स से शरीर की रक्षा करने वाली एंटीबाडीज एवं कुछ होर्मोन्स भी प्रोटीन से बने होते हैं. प्रोटीन कि कमी से बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास रुक जाता है.
हम सभी के लिए यह आवश्यक है कि अपने भोजन में प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में अवश्य लें. शाकाहारी भोजन में प्रोटीन के मुख्य स्रोत हैं – दूध व दूध से बनी चीजें (दही, मट्ठा, पनीर, खोया आदि), सभी दालें, चना, मटर, राजमा, सोयाबीन व इनसे बनने वाली चीजें (बेसन, बड़ियाँ, नगेट्स आदि). नाश्ते व दोनों समय के खाने में इनमें से कोई न कोई चीज़ अवश्य होनी चाहिए.
नॉनवेज भोजन में प्रोटीन का सबसे अच्छा स्रोत अंडे कि सफेदी है जोकि शुद्ध प्रोटीन ही होता है. मछली में भी अच्छी क्वालिटी का प्रोटीन होता है. अन्य प्रकार के मीट में प्रोटीन तो अच्छी मात्र में होता है लेकिन वह इतनी अच्छी क्वालिटी का नहीं होता है.

8. बहुत से लोग यह मानते हैं कि सुबह उठकर बहुत सारा पानी पीना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। यह एक भ्रामक विश्वास है। पानी उतना ही पीना चाहिए जितनी हमारे शरीर को आवश्यकता है। सामान्यतः एक औसत व्यक्ति को 24 घंटे में डेढ़ लीटर पानी की आवश्यकता होती है। गर्मी के दिनों में पसीना अधिक आने पर दो या ढाई लीटर पानी पीना चाहिए। यदि किसी को दस्त या उल्टी हो जाएं तो जितना पानी उसमें निकलता है उतना पानी (एवं नमक चीनी या इलेक्ट्रॉल) पीने की आवश्यकता होती है। यदि इतना पानी पहुंचता रहे तो गुर्दे शरीर में बनने वाले टॉक्सिक वेस्ट को पेशाब के रास्ते शरीर से बाहर निकालने में सक्षम होते हैं।
यदि हम बहुत अधिक पानी पीते हैं तो उससे कुछ नुकसान संभव हैं। अधिक पानी पीने से अधिक पेशाब होती है जिससे शरीर के अंदर सोडियम की कमी हो सकती है। जो लोग हृदय रोग, लिवर सिरोसिस, हाई ब्लड प्रेशर या गुर्दा रोग के कारण नमक कम खा रहे होते हैं उन में इस बात की संभावना अधिक होती है। सोडियम कम होने से दिमाग की सोचने की क्षमता और याददाश्त कम होने लगती है। सोडियम और अधिक कम होने पर व्यक्ति बेहोश हो सकता है एवं उसके दिमाग को स्थाई नुकसान पहुंच सकता है। जिन लोगों को हृदय रोग, लिवर की बीमारी या गुर्दे की बीमारी है वे यदि अधिक पानी पीते हैं तो उन्हें शरीर में सूजन आ सकती है और फेफड़ों में पानी इकठ्ठा होने से सांस फूलने की परेशानी हो सकती है। शरीर व फेफड़ों में बहुत अधिक पानी इकठ्ठा हो जाने पर हार्ट फेल्यर जैसी स्थिति भी आ सकती है।
बहुत अधिक पानी पीने से शरीर के अलावा पर्यावरण को भी नुकसान होता है। बहुत अधिक पानी पीने वाले बार-बार पेशाब जाते हैं और हर बार फ़्लश करने में 10 – 15 लीटर पानी वेस्ट करते हैं। आज सारी दुनिया ग्राउंड वाटर की कमी और सीवर सिस्टम के ओवरलोड से परेशान है। अधिक पानी पीना इन दोनों समस्याओं को बढ़ाता है।
मेडिकल साइंस अधिक पानी पीने का सुझाव उन लोगों को देती है जिनको गुर्दे में बार-बार पथरी बनती है। ऐसे लोग यदि अधिक पानी पीते हैं तो उनकी पथरी निकलने की संभावना बढ़ जाती है एवं नई पथरी बनने की संभावना कम हो जाती है। उनके लिए अधिक पानी पीना लाभप्रद है। कुछ लोग इसलिए बहुत पानी पीते हैं कि उनका मुंह बहुत सूखता है। अधिकतर लोगों में आयु बढ़ने के साथ मुंह में लार बनना कम होती जाती है, इसलिए मुंह सूखने की परेशानी होती है। कुछ दवाएं भी लार बनने को कम करती हैं। जिन लोगों को अधिक मुंह सूखने की परेशानी है उन्हें चाहिए कि अपने डॉक्टर से बात करके ऐसी दवाएं लिखवा लें जिनसे मुंह कम सूखता हो और मुंह में मिश्री, सौंफ या इलायची जैसी कोई चीज डाल कर रखें जिससे लार बनती रहे और मुँह सूखने की परेशानी न हो।

9. हम सभी जानते हैं कि अधिक नमक खाना नुकसान देह होता है (विशेषकर ब्लड प्रेशर, हृदय रोग, गुर्दा रोग एवं लिवर के मरीजों को)। बहुत से लोग सामान्य सफेद नमक (Nacl, सोडियम क्लोराइड) को कम खाने के स्थान पर सेंधा नमक का प्रयोग करने लगते हैं। वे सोचते हैं कि सेंधा नमक नुकसान नहीं करता इसलिए जितना चाहे खा सकते हैं। यह एक भ्रामक विचार है। सेंधा नमक में पोटेशियम अधिक मात्रा में होता है एवं कुछ अन्य अशुद्धियां भी होती हैं जिसके कारण रोज खाने एवं अधिक मात्रा में खाने से यह नुकसान कर सकता है। विशेषकर गुर्दे के मरीजों को तो सेंधा नमक बिल्कुल नहीं खाना चाहिए।

10. यदि आपको स्वास्थ्य संबंधी कोई परेशानी है तो आप को पहले अपने फैमिली डॉक्टर से परामर्श लेना चाहिए. आपका फैमिली डॉक्टर केवल डॉक्टर ही नहीं आपका हितेषी व मार्गदर्शक भी है. वह आपके व आपके परिवार के विषय में ऐसी बहुत सी बातें जानता है जिनका आप की बीमारी से संबंध हो सकता है. सामान्य बीमारियों का इलाज वह स्वयं कर सकता है. यदि वह किसी विशेषज्ञ से परामर्श की आवश्यकता समझता है तो वह आपको इस विषय में उचित सलाह देता है.
सामान्य लोग यह गलती करते हैं कि वे कोई परेशानी होने पर स्वयं ही किसी विशेषज्ञ के पास चले जाते हैं. इससे यह नुकसान होता है कि अक्सर वे गलत विशेषज्ञ चुन लेते हैं. उदाहरण के तौर पर सीने में दर्द हृदय रोग, एसिडिटी, निमोनिया, प्लूरिसी, हड्डी की खराबी व अन्य कई कारणों से हो सकता है. यदि कोई मरीज सीधे किसी विशेषज्ञ को दिखाना चाहता है तो उसके लिए यह तय करना बहुत कठिन है कि उसे किस विशेषज्ञ को दिखाना चाहिए.
जिन लोगों को लम्बे समय तक चलने वाली बीमारियां (chronic illnesses) जैसे ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, हृदय रोग, एसिडिटी, जोड़ों का दर्द, जिगर या गुरदों की बीमारी इत्यादि हो उनको किसी फिज़ीशियन की देखरेख में रहना चाहिए और यदि कोई परेशानी हो तो अपने फिज़ीशियन से पूछ कर ही किसी और डॉक्टर को दिखाना चाहिए. उन्हें कोई भी दवा चाहे वह खांसी, जुकाम, दर्द की कॉमन दवा हो या किसी अन्य विशेषज्ञ की लिखी हुई कोई दवा हो, अपने फिज़ीशियन से पूछकर ही खाना चाहिए. क्योंकि किसी एक अंग की बीमारी के लिए दी गई दवा शरीर के अन्य अंगों को हानि पहुंचा सकती है. फिज़ीशियन मरीज का संपूर्ण रुप से इलाज करता है. वह सभी प्रकार की बीमारियों के लक्षण एवं दवाओं के इफेक्ट्स और साइड इफेक्ट्स को समझ कर उन में समन्वय (coordination) करता है.
उदाहरण के तौर पर किसी मरीज को ब्लड प्रेशर, गुर्दे की बीमारी व अल्सर की शिकायत है, साथ में उसको जोड़ों में दर्द होने लगता है. उसका फिज़ीशियन यह जानता है कि उस को दर्द की तेज दवाएं बहुत नुकसान करेंगी इसलिए वह दर्द की बहुत हल्की दवाएं देता है. मरीज को आराम नहीं होता तो वह हड्डी के डॉक्टर के पास चला जाता है. वह उसे तेज दर्द निवारक दवाएं देता है जिनसे उसका दर्द तो कम हो जाता है पर उसका ब्लड प्रेशर काफी बढ़ जाता है, गुर्दे और अधिक खराब हो जाते हैं और अल्सर के कारण उसे खून की उल्टियां होने लगती हैं. इस प्रकार की परेशानियों से तभी बचा जा सकता है जब लम्बी बीमारियों के मरीज फिजीशियन की देखरेख में ही अन्य डाक्टरों की दवा खाएँ.

11. बुखार अर्थात शरीर का तापमान बढ़ जाना अपने आप में कोई बीमारी नहीं है. यह बहुत सी बीमारियों का एक लक्षण है. अधिकांश बुखार किसी वाइरस, कीटाणु या परजीवी द्वारा इन्फैक्शन होने से होते हैं.

बुखार के बहुत सारे कारण होते हैं एवं प्रत्येक प्रकार का बुखार बहुत से लक्षण पैदा कर सकता है. बहुत से लक्षण कई बुखारों में पाए जाते हैं जैसे ठण्ड लगकर बुखार आना, सर, कमर व पैरों में दर्द होना, भूख न लगना, मुँह कड़वा होना आदि. जब भी किसी को बुखार महसूस हो उसे थर्मामीटर द्वारा नाप कर जरूर देखना चाहिए. बहुत से लोग केवल मुंह कड़वा होने को बुखार समझ लेते है और बहुत दिनों तक बुखार की दवाएं खाते रहते हैं.

बुखार के बहुत सारे कारण होते हैं व प्रत्येक बुखार के बहुत तरह के लक्षण होते हैं. इस कारण बुखार की निश्चित डायग्नोसिस कभी कभी संभव नहीं होती. ऐसे में डाक्टर अपने अनुभव द्वारा इलाज आरम्भ कर देते हैं व समय समय पर आवश्यक जांचे करा कर डायग्नोसिस कायम करते हैं. कभी कभी दो या तीन इन्फैक्शन एक साथ हो जाते हैं जिससे मिश्रित लक्षण उत्पन्न होते हैं. कभी दवाओं के कारण बुखार के लक्षण दब जाते हैं, कभी दवाओं के साइड इफैक्ट्स से नए लक्षण पैदा हो जाते हैं. कभी कभी कोई इन्फैक्शन होते हुए जांचों में कुछ नहीं आता है और कभी इन्फेक्शन न होते हुए भी जाँच पॉजिटिव आ सकती है. ये सब ऐसे कारण हैं जो बुखार के इलाज में जटिलताएँ पैदा कर सकते हैं. इस लिए यदि बुखार उतरने में समय लगे तो धैर्य से काम लेना चाहिए. बार बार डॉक्टर से बुखार का कारण पूछने में केवल समय नष्ट होता है, इससे रोगी को कोई लाभ नहीं होता है.

बुखार होने पर डाक्टर की सलाह ले कर ही दवा खानी चाहिए. जब तक डॉक्टर उपलब्ध न हो तब तक केवल पेरासिटामोल 500 मिलीग्राम की गोली हर चार घंटे पर लेना चाहिए. अपने आप से एंटीबायोटिक दवाएँ नहीं लेना चाहिए क्योंकि हर इन्फेक्शन में अलग अलग एंटीबायोटिक काम करती हैं.

12.

बहुत से लोगों को यह जानकारी नहीं होती है कि गर्भावस्था में दवाओं का सेवन कम से कम करना चाहिए क्योंकि बहुत सी दवाएं गर्भस्थ शिशु को नुकसान पहुँचा सकती हैं. हमारे देश में यह समस्या इसलिए अधिक है क्योंकि यहाँ प्रत्येक व्यक्ति को सभी दवाएं आसानी से दवा की दुकानों पर मिल जाती हैं. बहुत से डॉक्टर्स को भी इस विषय में पूरी जानकारी नहीं होती.
जो कॉमन दवाएं गर्भावस्था में विशेष रूप से मना हैं वे इस प्रकार हैं – (विशेषकर पहली तिमाही में कोई भी दवा देने में अत्यधिक सावधानी रखना होती है, क्योंकि इस समय शिशु के विभिन्न अंगों का निर्माण (organogenesis) होता है) –
1. कोलेस्ट्रोल कम करने वाली Statin group की दवाएँ
2. ब्लड प्रेशर और हार्ट की दवाओं में Ramipril एवं Enalapril जैसी Ace inhibitors group की दवाएँ और Losartan एवं Telmisartan जैसी ARB group की दवाएँ
3. Gentamicin एवं Tetracycline group की दवाएँ. Metronidazole पहली तिमाही में व Nitrofuratoin और Sulpha drugs तीसरी तिमाही में.
4. हाइपरथाइरॉइड की दवा Carbimazole (पहली तिमाही में)
5. दर्द निवारक दवाएँ जैसे एस्पिरिन, कौम्बिफ्लाम, डाइक्लोफिनैक आदि (विशेषकर तीसरी तिमाही में)
6. मुहांसों की दवा Isotretinoin बिलकुल मना है.
7. हॉर्मोन सम्बन्धी दवाएँ Testosterone, Estrogen, Tamoxifene, Finastride, Danazol आदि.
8. खून जमना रोकने वाली दवाएँ Warfarin एवं Acitrom.
9. माइग्रेन की दवा Ergotamine.
10. Diazepam ग्रुप की नींद की दवाएँ.
11. रूमैटॉइड आर्थराइटिस की दवाएँ Methotrexate एवं Leflunomide.
12. कैंसर की अधिकतर दवाएँ.
13. मिरगी की दवाएँ Phenobarbitone एवं Valproate.
इनके अतिरिक्त बहुत सी दवाएँ ऐसी हैं जिन पर अभी पर्याप्त अध्ययन नहीं हुआ है इसलिए उनको भी गर्भावस्था में प्रयोग नहीं करते हैं.
महिलाओं के अलावा पुरुषों द्वारा सेवन की जाने वाली कुछ दवाएं भी संतान पर हानिकारक प्रभाव डाल सकती हैं. इन में कैंसर की दवाएं मुख्य हैं. पुरुष द्वारा शराब एवं सिगरेट का सेवन करने से भी शिशु में जन्मजात हृदय रोग (congenital heart defects) अधिक होने का डर होता है.

 

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