हमारे शरीर का नार्मल तापमान (temperature) 37oC या 98.6oF होता है. हमारे मस्तिष्क में एक ऐसा सेंटर होता है जो बहुत बारीकी से तापमान को इतने पर ही मेंटेन रखता है. थर्मामीटर द्वारा हम शरीर के ऊपर का तापमान रिकॉर्ड करते है जोकि कुछ फर्क हो सकता है पर हमारा अंदरूनी तापमान 98.6oF ही होता है. जब हमारे चारों ओर का तापमान अधिक होता है तो शरीर को 98.6oF पर मेंटेन रखने के लिए शरीर में होने वाली गर्मी को बाहर निकालना आवश्यक होता है. इसके लिए हमारे शरीर से पसीना आता है जिसके सूखने से शरीर की गर्मी बाहर निकलती है (ठीक वैसे ही जैसे घड़े में पानी ठंडा होता है). कोई इन्फेक्शन होने पर यह temperature मेंटेन करने वाला सेंटर अधिक पर सेट हो जाता है और हमें बुखार हो जाता है. कभी कभी इन्फेक्शन ख़त्म होने के बाद भी (या कुछ अन्य कारणों से) शरीर से गर्मी बाहर निकालने वाले मेकनिज्म में गड़बड़ी हो जाती है और शरीर का तापमान 98.6oF से अधिक पर मेंटेन होने लगता है. ऐसा अधिकतर गर्मी के मौसम में होता है. इस प्रकार के लोगो में नापने पर बुखार 98.6oF से अधिक होता है पर उनमें बुखार से सम्बंधित लक्षण (भूख न लगना, वजन कम होना, खांसी, पेट दर्द, सरदर्द, उलटी दस्त, पेशाब में जलन आदि) नहीं मिलते. इनमे से अधिकतर लोगो में कुछ समय बाद (विशेषकर गर्मी का मौसम बीतने के बाद) बुखार ठीक हो जाता है. ज्यादातर लोगो को इस तथ्य की जानकारी नहीं होती और बहुत से डॉक्टर भी इस विषय में कुछ नहीं जानते इसलिए वे फालतू टैस्ट करा के अनावश्यक एंटीबायोटिक्स देते रहते हैं.
बहुत से लोगो का temperature बढ़ा हुआ नहीं होता पर उन्हें लगता है कि उन्हें बुखार है. वे बुखार को नापकर देखते ही नही हैं और यह मान लेते हैं कि उन्हें लम्बे समय से बुखार रहता है. कभी कभी कोई थर्मामीटर ख़राब होते हैं और वे बुखार को एकाध डिग्री ज्यादा दिखाते हैं, तब भी लोगों को बुखार का धोखा होता है. बहुत से लोगों का मुँह कड़वा रहता है तो वे यह मान लेते है की उन्हें बुखार है. कुछ लोगो को यह वहम रहता है कि उन्हें अंदरूनी टायफाईड है (वास्तव में इस प्रकार की कोई बीमारी नहीं होती है). इस प्रकार की गलतफहमियों वाले बहुत से मरीज खुद ही लैब में जाकर टैस्ट करा लेते हैं या कई बार ऐसे डॉक्टर को दिखाते हैं जिन्हें चिकित्सा विज्ञान की सही जानकारी नहीं होती. वे डॉक्टर भी बिना यह कन्फर्म किये कि मरीज को बुखार है या नहीं, मरीज के बहुत से फालतू टैस्ट करा देते हैं. हमारे यहाँ (विशेषकर कस्बो में) ऐसी लैब्स की भरमार है जिन्हें झोलाछाप लोग या लैब टेकनीशियन चला रहे हैं. वे लोग भी अपने फायदे के लिए ऐसे मरीजों की बहुत सी जांचे कर देते हैं. इन जांचो में विडाल टेस्ट (Widal test) नाम की एक फालतू जाँच होती है जोकि कुछ पिछड़े देशों को छोड़कर सारी दुनिया में रद्दी की टोकरी में डाली जा चुकी है. यह जाँच अधिकतर लोगों में पॉजिटिव आती है. मरीज और डॉक्टर दोनों संतुष्ट हो जाते हैं कि बीमारी पकड़ में आ गई और मरीज को एंटीबायोटिक्स के अनावश्यक कोर्स कराये जाते हैं, जबकि बीमारी कोई होती ही नहीं है. कई मरीज दवा का कोर्स पूरा करने के बाद यह देखने के लिए कि टायफाइड ख़त्म हुआ या नहीं, दोबारा टैस्ट कराते हैं और फिर यह टैस्ट पॉजिटिव आता है. फिर वे किसी और डॉक्टर को दिखाते हैं जोकि और तेज एंटीबायोटिक्स का कोर्स करता है, लेकिन जाँच उसके बाद भी पॉजिटिव आती है. इस प्रकार मरीज बिना किसी इन्फेक्शन के, बुखार के भ्रम में फालतू जांचों और दवाओं के चक्रव्यूह में फंस कर अनाप शनाप पैसा खर्च करता है और अपने स्वास्थ्य को नुक्सान भी पहुचाता है. अनावश्यक एंटीबायोटिक्स खाने का एक बहुत बड़ा नुकसान यह भी है की इससे ऐसे खतरनाक रेसिस्टेंट बैक्टीरिया पनपते हैं जिन पर कोई एंटीबायोटिक काम नहीं करती.
बुखार की गलतफहमी वाले मरीजो में एक और खतरनाक वहम होता है टीबी का. टीबी के लक्षण होते हैं, बुखार जोकि सामान्यत: शाम को बढता है, भूख न लगना और वजन कम होना. इसके अलावा शरीर के जिस हिस्से में टीबी का इन्फेक्शन है उससे सम्बंधित लक्षण पाए जाते हैं – जैसे खांसी बलगम, पेट की परेशानी, जोड़ या हड्डी की परेशानी, गर्दन में गांठें आदि. लक्षणों और जांचों के अनुसार टीबी की डायग्नोसिस को पूरी तरह कन्फर्म करके इसका इलाज़ किया जाता है. टीबी की डायग्नोसिस के लिए कुछ लोग पीपीडी टैस्ट (PPD, montoux test) कराते हैं. इसमें एक टीका लगाते हैं जिसे 72 घंटे बाद नापकर देखते हैंकि उसमें कितनी सूजन आई है. यदि 10 मिमी से अधिक सूजन हो तो उसे पॉजिटिव मानते हैं. यह टैस्ट केवल ये बताता है की मरीज को कभी न कभी टीबी कीटाणु से इन्फेक्शन हुआ था और उसके अन्दर उन कीटाणुओ से लड़ने की क्षमता विकसित हुई है. हमारे देश में अधिकतर स्वस्थ लोगों को बचपन में ही टीबी कीटाणु से एक्सपोज़र हो चुका होता है इसलिए आमतौर पर यह टैस्ट पॉजिटिव आता है. पीपीडी के अलावा टीबी को डायग्नोस करने के लिए बहुत सी महंगी महंगी खून की जांचे होती हैं जो बिलकुल विश्वास करने योग्य नहीं होती हैं (जैसे टीबी गोल्ड, क्वान्टीफेरोन आदि). मेडिसिन की किसी किताब में इन जांचो को कराने के लिए नहीं कहा गया है और सरकार की तरफ से इन्हें बैन कर दिया गया है. केवल कुछ लैब्स अपने फायदे के लिए इन्हें प्रचारित करती हैं. वास्तव में टीबी की सही डायग्नोसिस खून की जांच से हो ही नहीं सकती. जिस अंग में टी बी का शक हो उससे प्राप्त मैटीरियल (बलगम, पस, स्राव, बायोप्सी आदि) की जांच से ही टीबी कन्फर्म की जा सकती है.
जिन डॉक्टर को ये जानकारी नहीं होती वे बुखार की ग़लतफ़हमी वाले मरीज का पीपीडी टैस्ट और फालतू खून की जांचे करा के टीबी की दवा शुरू कर देते हैं. इनमें से कुछ मरीजों को दवाएं रिएक्शन करती हैं जिससे उनको बहुत नुक्सान होता है. कई बार उन डॉक्टर को टीबी की दवा की सही डोज़ भी नहीं मालूम होती है. वे मरीज को आधी अधूरी डोज़ देते हैं और उसको भी मरीज अनियमित रूप से खाता है. इससे एक बहुत बड़ा खतरा होता है की दवाओ से रेसिस्टेंट टीबी कीटाणु पैदा होने का. आज चिकित्सा विज्ञान ड्रग रेजिस्टेंट टीबी से जूझ रहा है जिससे हजारो लाखों मौतें हो रही हैं.
बुखार की डायग्नोसिस और इलाज़ में किसी भी खून, पेशाब की जाँच या एक्सरे, अल्ट्रासाउंड से अधिक जरुरी है की बुखार को दिन में चार बार नापकर उसका चार्ट बनाना. बुखार का चार्ट बनाने से यह भी पक्का हो जाता है कि बुखार वास्तव में है भी या नहीं.
बुखार कितने दिनों से है, कितना होता है, कब घटता है, कब बढ़ता है यह जानना डॉक्टर के लिए जरुरी होता है और साथ ही यह जानना भी कि बुखार के साथ और क्या क्या लक्षण हैं – जैसे ठण्ड लगना, कंपकपी आना, खांसी ज़ुकाम, गले में दर्द, दस्त उल्टी, सिरदर्द, बदनदर्द, पेशाब में जलन, जोड़ो में दर्द, गांठे होना, वज़न कम होना, भूख कम लगना आदि.
याद रखें – बुखार कोई बीमारी नहीं है, यह केवल एक लक्षण है जिसके बहुत से कारण होते हैं. जब तक कारण को डाइग्नोस नहीं किया जाता तब तक बुखार का इलाज़ नहीं हो सकता.
डॉ शरद अग्रवाल एम डी