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बबासीर,एनल फिशर व फिस्चुला ( Piles, Anal fissure & Anal fistula )

बबासीर (piles) के विषय में लोगों में बहुत सी गलत धारणाएँ पाई जाती हैं। बबासीर का अर्थ है, गुदा के रास्ते में रक्त की नसों (veins) के फूल जाने से अंदरूनी मस्से बन जाना। समय समय पर इन मस्सों में खून भर जाता है जोकि इन मस्सों के फूटने से लैट्रीन जाने के पहले या बाद में बूँद बूँद टपकता है या धार बन कर गिर सकता है। आम तौर पर इन मस्सों में दर्द नहीं होता। अधिकतर मरीजों में ये मस्से बाहर दिखाई नहीं देते। यदि ये बहुत बड़े हो जाएं तो लैट्रीन करते समय बाहर निकल आते हैं और लैट्रीन होने के बाद अपने आप या हाथ से दबाने पर अन्दर हो जाते हैं। कभी कभी इन्फेक्शन होने पर इनमें खून जम जाता है और सूजन आ जाती है। तब ये अन्दर नहीं जाते और दर्द करते हैं। ऐसी दशा में इनमें इमरजेंसी ऑपरेशन करना पड़ सकता है। जो लोग भोजन में साग सब्जी, फल व दालें अधिक लेते हैं उन्हें बबासीर की बीमारी कम होती है। जिन लोगों के भोजन में फाइबर कम होता है उन्हें कब्ज़ होने व लैट्रीन में जोर लगाने के कारण बबासीर अधिक होती है।

बबासीर के मस्सों से रक्तस्राव (bleeding) कभी कभी ही होता है। मस्सों में भरा हुआ रक्त निकल जाने के बाद अपने आप ही खून रुक जाता है। दोबारा भरने पर फिर रक्तस्राव हो सकता है। खाने एवं लगाने की दवाओं से इसमें विशेष लाभ नहीं होता।खून आना रुकता तो अपने आप है पर लोग यदि कोई भी दवा लेते हैं तो वे समझते हैं कि दवा से लाभ हुआ है। बहुत से लोगों को यह वहम होता है कि अंग्रेजी दवाएं खाने से उनको बबासीर से खून आने लगता है। आम तौर पर खून मस्सों के भर जाने पर अपने आप ही आता है। लैट्रीन सख्त होने या जोर लगाने पर खून आने की संभावना बढ़ जाती है। ह्रदय रोग व फलिज़ के इलाज में दी जाने वाली खून ज़मने से रोकने वाली दवाओं जैसे एस्पिरिन, क्लोपिडोग्रेल, वारफेरिन आदिसे खून आने की संभावना बढ़ सकती है। जिन लोगों को बबासीर की बीमारी होती है उनमें बार बार रक्तस्राव होने से खून की कमी हो जाती है। बबासीर के उपचार के लिए मस्सों का ऑपरेशन करना होता है, उनमें सुखाने वाली दवा का इंजेक्शन लगाना होता है या एक विशेष उपकरण द्वारा उन पर छल्ला चढ़ाना होता है (banding)। बबासीर में ऑपरेशन, इंजेक्शन या बैंडिंग योग्य सर्जन या गैस्ट्रोएंटेरोलोजिस्ट से ही कराना चाहिए। इसके लिए नीम हकीमों या बंगाली डाक्टरों के चक्कर में कभी नहीं पड़ना चाहिए।

गुदा के रास्ते में होने वाली दूसरी बीमारी है एनल फिशर (anal fissure)। सख्त लैट्रीन आने की वज़ह से गुदा की खाल कट जाती है। लैट्रीन करते समय इस में दर्द होता है व कभी कभी थोडा खून भी आ सकता है (इस में खून आने की शिकायत कम ही होती होती है पर दर्द अत्यधिक हो सकता है)। दर्द के कारण वहाँ की खाल सिकुड़ कर एक स्थान पर ऊपर को उठ जाती है व मस्से जैसी दिखाई देती है। इसको लोग भ्रमवश बबासीर का मस्सा समझते हैं। बहुत से लोगों को इससे खून नहीं आता, केवल दर्द होता है। ऐसी स्थिति में लोग इसे बादी बबासीर कहते हैं। बबासीर के भ्रम में लोग इसके लिए देसी दवाएं आदि खाते रहते हैं। बहुत से लोग नीम हकीमों से ऑपरेशन करा के मुश्किल में पड़ जाते हैं। सच यह है कि इस के अधिकतर मरीजों में दवा व ऑपरेशन की आवश्यकता नहीं होती। केवल इस बात का ध्यान रखना होता है कि लैट्रीन सख्त न हो। गरम पानी के तसले में बैठ कर सिकाई  करने व कुछ लगाने वाली दवाओं से इस में आराम मिलता है। यदि लैट्रीन मुलायम आती रहे तो धीरे धीरे फिशर का घाव भर जाता है, लेकिन फिर सख्त लैट्रीन आने पर फिर से फिशर बन जाता है। कभी कभी फिशर में बहुत दर्द होने पर या अधिक खून आने पर इसका ऑपरेशन करना पड़ सकता है। फिशर के बहुत से मरीजों को यह भ्रम होता है कि एलोपैथिक दवाएं खाने से उन्हें बबासीर हो जाती है, जबकि सच यह होता है कि उन्हें बबासीर होती ही नहीं है, केवल सख्त लैट्रीन आने से उनका फिशर फिर से खुल जाता है। ऐसे लोगों को जब भी कोई दवा खानी पड़े या किसी भी कारण से लैट्रीन सख्त होने का अंदेशा हो तो एहतियातन दूध – मुनक्का, इसबगोल, या dulcolex जैसी कोई हलकी दवा ले लेनी चाहिए।

इन दोनों कॉमन परेशानियों के अलावा गुदा के रास्ते में एक और परेशानी होती है वह है एनल फिस्चुला (anal fistula)। बोलचाल की भाषा में इसे भगंदर कहते हैं। इस में लैट्रीन के रास्ते से बाहर की खाल तक बारीक सा रास्ता बन जाता है। फिस्चुला बनने का सबसे कॉमन कारण है गुदा के बगल की खाल में फोड़ा बनना और फिर उस फोड़े का एक मुँह अन्दर की ओर खुल जाना। कभी कभी आँतों में अलसर की बीमारी या टी बी से भी fistula बन जाता है। फिस्चुला में इन्फेक्शन होने से इसमें से थोड़ा थोड़ा पस, खून मिश्रित पस या मल निकलता है। इस का इलाज केवल ऑपरेशन से ही हो सकता है। आयुर्वेदिक चिकित्सा में क्षार सूत्र से इसका इलाज किया जाता है। पर इस विषय में कोई तथ्यपरक वैज्ञानिक जानकारी उपलब्ध नहीं हैं।

 

डॉ. शरद अग्रवाल एम.डी. (www.healthhindi.in)

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