हमारे खून में तीन प्रकार की रक्त कोशिकाएं होती हैं. लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells), सफेद रक्त कोशिकाएं (white blood cells) एवं प्लेटलेट्स (platelets). सफेद रक्त कोशिकाएं (white blood cells) ) पांच प्रकार की होती हैं – इनके नाम हैं पॉलीमॉर्फ (polymorphonuclear leucocytes), लिंफोसाइट (lymphocytes), इओसिनोफिल्स (eosinophils), मोनोसाइट (monocytes) और बेसोफिल्स (basophils). ये सभी कोशिकाएं अलग-अलग प्रकार की बाहरी एवं भीतरी बीमारियों से लड़ने में हमारे शरीर की सहायता करती हैं. इनमें से इओसिनोफिल्स (Eosinophils) एलर्जी पैदा करने वाले कणों एवं परजीवियों से मुकाबला करने में हमारी सहायता करती हैं.
सामान्य रूप से हमारी सफेद रक्त कोशिकाओं में से 2 – 8% इओसिनोफिल्स होती हैं (30 से 350 कोशिकाएं प्रति मिलीलीटर). यदि इओसिनोफिल्स की संख्या 500 प्रति मिलीलीटर से ऊपर होती है तो इस अवस्था को इओसिनोफिलिया (Eosinophilia) कहते हैं. सामान्य एलर्जी वाली स्थितियां जैसे कि पेट में कीड़े होना, दमा (asthma), पित्ती उछलना, दवाओं से एलर्जी आदि में इओसिनोफिल्स केवल थोड़ी सी ही बढ़ती हैं (10 से 15 % तक). जिन परिस्थितियों में इओसिनोफिल्स बहुत अधिक बढ़ सकती हैं उनमें सबसे कॉमन है ट्रॉपिकल पलमोनरी इओसिनोफिलिया (Tropical pulmonary eosinophilia, TPE). इस बीमारी में फ़ाइलेरिया पैदा करने वाले विशेष परजीवियों के लारवा रक्त में संचरण करते हुए फेफड़ों में पहुंच जाते हैं, जिससे व्यक्ति को खांसी आना एवं सांस फूलना जैसे लक्षण होते हैं. इसमें इओसिनोफिल्स काउंट 70 – 80% तक भी पहुंच सकती है. इस बीमारी में फाइलेरिया की दवा डाई इथाइल सेमीकार्बामैजीन (DEC) लगभग 3 हफ्ते तक खाना होती है. जिन लोगों को TPE होता है उन में आम तौर पर फ़ाइलेरिया के लक्षण (हाथीपांव, पैर में सूजन व लाली, बुखार आदि) नहीं होते. इसी प्रकार की एक अन्य बीमारी Loeffler’s syndrome में पेट के कीड़े (एस्केरिस) के लार्वा के फेफड़े में संचरण के दौरान न्यूमोनिया और बहुत अधिक इओसिनोफिलिया हो सकता है. जिन दवाओं से इओसिनोफिलिया हो सकता है उनमें से मुख्य हैं एस्पिरिन, सल्फ़ा, ड्रग्स, नाइट्रोफ्यूरेंटोइन, पेनिसिलिन एवं सिफैलोस्पोरिन एंटीबायोटिक्स आदि. ये सभी दवाएं बहुत अधिक प्रयोग की जाती हैं और कभी कभी काफी लंबे समय तक खानी होती हैं. देसी दवाओं से भी एलर्जी हो सकती है (कई बार देसी के नाम पर ठग लोग अंग्रेजी दवाएं ही पीस कर दे देते हैं). इसलिए जब भी किसी को इओसिनोफिलिया हो उसे अपने डॉक्टर को यह अवश्य बताना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार की कोई दवा तो नहीं ले रहा है.
इन सामान्य कारणों के अलावा इओसिनोफिलिया होने के कुछ असामान्य (rare) कारण भी होते हैं जिन में कुछ ऑटो इम्यून बीमारियाँ, कुछ कैंसर एवं कुछ अज्ञात कारणों वाली बीमारियाँ (idiopathic hypereosinophilic syndromes) हैं जिनमें रक्त में अत्यधिक इओसिनोफिलिया के साथ हृदय, गुर्दे, भोजन नली, मस्तिष्क, फेफड़े, त्वचा आदि किसी अंग में इओसिनोफिल इकट्ठी हो जाती हैं और उन्हें डैमेज करती हैं.
इओसिनोफिलिया के बहुत से कारण होते हैं इसलिए इसका इलाज योग्य चिकित्सक से ही कराना चाहिए. बहुत से डॉक्टर्स को भी इसकी सही जानकारी नहीं होती इसलिए वे सभी मरीजों को अनावश्यक रूप से लम्बे समय तक फ़ाइलेरिया की दवा DEC खिलाते रहते हैं. जिन लोगों को एलर्जी के कारण जुकाम खांसी है उन के खून की जांच में भी थोड़ी सी इओसिनोफिल बढ़ी हुई होती हैं. उन्हें ये दवा नहीं खिलाना चाहिए. जिन लोगों को अधिक इओसिनोफिलिया है उन्हें भी यदि 21 दिन तक DEC खाने के बाद इओसिनोफिलिया ठीक नहीं होता है तो उन को बार बार DEC खाने की बजाए इओसिनोफिलिया पैदा करने वाले अन्य रोगों से सम्बंधित जांचें करवा के समुचित इलाज करवाना चाहिए.
डॉ. शरद अग्रवाल एम डी