पीलिया के विषय में जानने योग्य कुछ तथ्य
पीलिया का अर्थ है रक्त में बिलीरूबिन नामक पदार्थ के एकत्र होने से शरीर में पीला पन आ जाना. पीलिया स्वयं में कोई बीमारी नहीं है. जिस प्रकार बुखार कोई एक बीमारी न होकर बहुत सी बीमारियों का लक्षण होता है उसी प्रकार पीलिया भी बीमारी का एक लक्षण है जो बहुत से कारणों से उत्पन्न हो सकता है. पीलिया के मुख्य कारण हैं जिगर में सूजन (इन्फैक्शन, हानिकारक दवाओं या शराब के कारण) व पित्त की नली में रूकावट (पथरी या कैंसर) के कारण.
पीलिया के इन सभी भिन्न भिन्न कारणों का उपचार भी एकदम अलग अलग होता है, इस लिए पीलिया के उपचार के लिए बाजार में बिकने वाली सैकड़ों दवाएं न केवल व्यर्थ हैं बल्कि हानिकारक भी हो सकती हैं. विकसित देशों में जहाँ औषधि नियंत्रण सख्ती से लागू होता है, ऐसी दवाएं देने की अनुमति नहीं है. एलोपैथिक दवाएं बनाने वाली बहुत सी कम्पनियां भी लोगों के अन्धविश्वास का फायदा उठा कर लिवर के लिए जड़ी बूटियों की दवाएं बनाती हैं. दुर्भाग्य से हमारे देश में अशिक्षा व अंधविश्वास के कारण आज भी लोग देसी दवाओं व झाड़ फूंक करने वाले ठगों के चक्कर में पड़ जाते हैं. पीलिया का झाड़ना हाथ की सफाई द्वारा किया गया एक नाटक मात्र है. झाड़ने वाले बहुत से लोग मरीजों से कोई फ़ीस भी नहीं मांगते हैं. यह भी उनके नाटक का एक हिस्सा है. पीलिया अपने आप ठीक होता है पर हर मरीज अपनी खुशी से उन्हें कुछ न कुछ दे जरूर आता है, और लोग उन्हें बड़ा परोपकारी समझते हैं.
पीलिया के कारण तो बहुत से हैं परन्तु इन सबमें से वाइरल हिपैटाइटिस ए और ई सबसे अधिक महत्व पूर्ण है क्योंकि यह अत्यधिक संक्रामक हैं व गंदे खाद्य पदार्थों एवं दूषित जल से फैलती है. समुचित प्रयास करने पर काफी हद तक इनकी रोकथाम भी की जा सकती है. 95% से अधिक रोगियों में पीलिया इन्हीं दोनों वाइरस के कारण होता है. यह पीलिया अधिकतर रोगियों में बिना किसी दवा के दो से आठ सप्ताह में ठीक हो जाता है. इसी पीलिया को ठीक करने का झूठा श्रेय जड़ी बूटियों की दवा बनाने वाली कम्पनियाँ व झाड़ने वाले ठग ले लेते हैं. हिपैटाइटिस बी, सी, डी, व जी दूषित इंजेक्शन या संक्रमित रक्त से फैलती है. ये हिपैटाइटिस ए और ई की तुलना में घातक होती है. डिस्पोजेबिल सिरिंज के प्रयोग से एवं रक्त चढाने से पहले उसकी भली भांति जाँच कर लेने से इन से काफ़ी हद तक बचा जा सकता है.
वाइरल हिपैटाइटिस के लक्षण:-
सामान्यत: सभी प्रकार की वाइरल हिपैटाइटिस मिलते जुलते लक्षण उत्पन्न करती हैं. ये लक्षण हैं – भूख का बिलकुल न लगना, पेट के ऊपरी हिस्से में दर्द होना, उल्टियाँ आना, बुखार होना व मूत्र का रंग अत्यधिक पीला होना. इसके बाद आँखों में पीला पन दिखाई देता है. पीलिया के बहुत अधिक बढ़ने पर पूरा शरीर पीला होने लगता है. वायरल हिपैटाइटिस एक बार आरंभ होने के बाद अपना समय चक्र पूरा करती है. अर्थात इस में होने वाला पीलिया पहले बढ़ता है, फिर कुछ दिन ठहरता है व फिर धीरे-धीरे कम होता है. कोई भी दवा इस चक्र को नहीं बदल सकती. सामान्यत: इसमें दो से आठ सप्ताह का समय लगता है. पीलिया के दौरान रक्त की जाँच करने पर उसमें बिलीरुबिन व एस.जी.पी.टी नामक एन्जाइम बढ़े हुए मिलते हैं. यदि हेपैटाइटिस B या C की आशंका हो तो उसे भी रक्त की जांच से मालूम किया जा सकता है. यह जाँच इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हिपैटाइटिस B और C घातक रोग हैं और उनका उपचार भिन्न तरीके से किया जाता है.
उपचार:-
हिपैटाइटिस ए और ई कुछ समय ले कर स्वयं ही ठीक हो जाती है. इनमें केवल उल्टी रोकने की दवाएं जैसे डोमपेरिडोन लेना पर्याप्त है. बिस्तर पर लेट कर आराम करने से इसमें लाभ होता है. भोजन में कार्बोहाइड्रेट जैसे चीनी, ग्लूकोज, आलू व चावल अधिक मात्रा में एवं प्रोटीन व चिकनाई (घी, तेल, मक्खन) आदि कम मात्रा में लेना चाहिए. पीलिया ठीक होते समय प्रोटीन जैसे दाल एवं दूध, दही, पनीर को ठीक ठाक मात्रा में लेना चाहिए. मीट इत्यादि के सेवन से बचना चाहिए. गन्ने के रस में चीनी के अतिरिक्त और कोई उपयोगी पदार्थ नहीं होता है व गंदगी अधिक होने के कारण इन्फैक्शन होने का डर भी रहता है इसलिए उसका सेवन नहीं करना चाहिए. हल्दी व अन्य पीले पदार्थों से कोई हानि नहीं होती है. सभी फल सब्जियां अच्छी मात्रा में ले सकते हैं. रोटी व ब्रेड ले सकते हैं. शराब का सेवन व ऐसी दवाओं का सेवन जो लिवर को हानि पहुंचा सकती हैं, वर्जित है. लिवर टानिक्स के नाम पर बाजार में बिकने वाली सैकड़ों दवाएं न केवल व्यर्थ हैं बल्कि वे हानि कारक भी हो सकती हैं इसलिए उनसे बचना चाहिए. यह एक दु:खद सत्य है कि हमारे देश में इस प्रकार की अनावश्यक दवाओं का करोड़ों अरबों रुपयों का बाजार है. हिपैटाइटिस B और C के उपचार में अब एंटीवाइरस दवाओं का प्रयोग किया जाता है. इन दवाओं का प्रयोग करने से पहले कुछ विशेष जांचें (viral load आदि) करनी होती हैं. इनकी दवाएं काफी महंगी हैं और लम्बे समय तक लेनी होती हैं इसलिए इनका उपयोग केवल विशेषज्ञों द्वारा ही किया जाना चाहिए.
अल्कोहालिक हिपैटाइटिस एवं दवाओं द्वारा उत्पन्न हिपैटाइटिस का उपचार व परहेज भी वाइरल हिपैटाइटिस की भांति ही होता है. इसके साथ ही जब तक शराब या हानिकारक दवा बंद नही की जाती तब तक यह पीलिया ठीक नही हो सकता. पित्त की नली में रूकावट का इलाज सर्जरी या एन्डोस्कोपी द्वारा किया जाता है. यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे देश का शिक्षित वर्ग भी झाड़ फूंक एवं देशी दवाओं के जाल में फंसा हुआ है. बहुत से लोग आरम्भ का बहुमूल्य समय इन्हीं चक्करों में गवां देते हैं और अपनी बीमारी को लाइलाज अवस्था में पहुंचा देते हैं.
पीलिया की रोकथाम :-
हिपैटाइटस ए और ई से बचने के लिए गंदे खाद्य पदार्थों से बचना चाहिए व पीने के पानी को उबालना चाहिए. हिपैटाइटिस ए के लिए एक टीका भी उपलब्ध है पर यह बहुत महंगा है. जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है हिपैटाइटिस बी दूषित सिरिंज व इन्फैक्टेड रक्त से फैलती है. ब्लड चढाने से पहले उस में हिपैटाइटिस बी व सी की जाँच होना आवश्यक है. इंजेक्शन लगाने के लिए अच्छी ब्रांड की डिस्पोजेविल सिरिंज का ही प्रयोग करना चाहिए. बहुत से लोगों को हिपैटाइटिस वाइरस से इन्फैक्शन होने के बाद पीलिया नहीं होता पर वे उसके कैरियर हो जाते हैं, अर्थात वाइरस उनके रक्त में बना रहता है. ऐसे लोगों से दूसरों को इन्फैक्शन हो सकता है. बिना स्टेरिलाइज की गई सुई से नाक, कान छिदवाने से या टैटू गुदवाने से भी यह इन्फैक्शन हो सकता है. नवजात शिशु में जन्म के समय माँ से यह इन्फैक्शन आ सकता है. डाक्टर व अन्य स्वास्थ्य कर्मियों में रोगी के रक्त के संपर्क में आने से इन्फैक्शन हो सकता है. संक्रमित व्यक्ति के साथ सम्भोग करने से भी यह बीमारी हो सकती है. इस मामले में यह एड्स से भी अधिक संक्रामक है. हिपैटाइटिस बी के लिए टीका उपलब्ध है जो कि काफी असर कारक है और सभी लोगों को लगवाना चाहिए.
Note : आजकल पैकेज वाली जांचों का बहुत चलन हो गया है. सारे शरीर की जांच के नाम पर कॉर्पोरेट लैब्स बहुत से फ़ालतू टेस्ट करती हैं. किसी मरीज का बिलीरुबिन जरा सा बढ़ा हुआ होने पर लोगों को पीलिया होने का भ्रम होता है और वे अनावश्यक परहेज करने लगते हैं और दवाएं खाने लगते हैं (विशेषकर हर्बल दवाएँ). ऐसे मरीजों को इलाज की आवश्यकता नहीं होती है. हर्बल दवाओं से कुछ नुकसान भी सम्भव हैं.
डॉ. शरद अग्रवाल एम डी