हमारे शरीर को विभिन्न मेटाबोलिक क्रियाएं करने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है. हमारे फेफड़े वातावरण से ऑक्सीजन को ग्रहण करते हैं. ये ऑक्सीजन रक्त के हीमोग्लोबिन द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंचाई जाती है. शरीर की मेटाबोलिक क्रियाओं में कार्बन डाइऑक्साइड बनती है जिसको शरीर से बाहर निकालने का काम भी फेफड़े ही करते हैं. यदि फेफड़ों में कोई बीमारी हो तो शरीर को मिलने वाली ऑक्सीजन कम हो जाती है और कार्बन डाइऑक्साइड जो कि शरीर के लिए हानिकारक है रक्त में इकट्ठा होने लगती है. रक्त में ऑक्सीजन का कम होना और कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ना दोनों ही शरीर के लिए खतरनाक हैं.
फेफड़ों की कुछ बीमारियां ऐसी होती हैं जिनमें फेफड़ों में कोई स्थाई खराबी नहीं होती, केवल कुछ समय के लिए फेफड़े काम करना कम कर देते हैं जिससे जीवन के लिए खतरा पैदा हो सकता है. इस प्रकार की बीमारियां हैं – डबल निमोनिया, छाती की चोट, पसलियों का फ्रैक्चर, छाती की मांसपेशियों का किसी कारणवश काम ना करना, फेफड़ों में पानी भर जाना इत्यादि. इस प्रकार की परेशानियों में तुरंत इलाज की आवश्यकता होती है और जब तक फेफड़े दुबारा काम करना शुरू ना कर दें तब तक वेंटीलेटर की सहायता लेनी पड़ सकती है. फेफड़ों की अन्य बीमारियां जैसे पुराना दमा, ब्रोंकाइटिस, इंटरस्टीशियल लंग डिज़ीज़ (ILD), अधिक बढ़ी हुई फेफड़ों की टीबी आदि में फेफड़ों की कमजोरी स्थाई होती है अर्थात उनकी ऑक्सीजन लेने और कार्बन डाईऑक्साइड निकालने की क्षमता स्थाई रूप से कम हो जाती है.
आयु बढ़ने के साथ-साथ हम सभी लोगों में फेफड़ों की क्षमता धीरे-धीरे घटती है. यदि वातावरण में अधिक प्रदूषण हो तो यह क्षमता और तेजी से कम होती है. जिन लोगों को फेफड़े की कोई बीमारी न हो उनमें अंत तक इतनी क्षमता बनी रहती है कि उनका काम चलता रहे. लेकिन जिन लोगों को फेफड़ों की बीमारी होती है उनमें आयु बढ़ने के साथ एक समय ऐसी स्थिति आ जाती है कि फेफड़े काम करना बहुत कम कर देते हैं और उनकी सांस फूलने लगती है. शुरू में केवल काम करने पर सांस फूलती है पर धीरे-धीरे बैठे-बैठे भी सांस फूलने लगती है. ऐसी स्थिति वाले मरीजों को यदि बीच में कोई इंफेक्शन हो जाए तो उनकी सांस लेने की क्षमता एकदम से कम हो जाती है और फिर इलाज करने पर वे लौटकर पुरानी की स्थिति में पहुंच जाते हैं. जिन लोगों के फेफड़े कमजोर होते हैं उन्हें सांस के इंफेक्शन होने की संभावना सामान्य लोगों से अधिक होती है. इस प्रकार के अटैक के समय सांस के मरीजो को अक्सर अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है. ऐसे हर अटैक के बाद उनके फेफड़े पहले से अधिक कमजोर हो जाते हैं.
इस प्रकार के मरीजों में सांस की परेशानी को यथासंभव कम करने के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए –
- किसी भी प्रकार के धुएं से बचना चाहिए.
- सिगरेट, बीड़ी, तंबाकू, पान मसाले आदि का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं करना चाहिए.
- ठंडा पानी, कोल्ड ड्रिंक, आइसक्रीम आदि का सेवन नहीं करना चाहिए.
- यदि किसी को दही खाने से जुकाम या गला खराब होता हो तो दही को अलग से ना खाकर सब्जी या दाल में डालकर खाना चाहिए.
- सभी प्रकार की तेज खुशबुओं, परफ्यूम, टैलकम पाउडर, आल आउट, धूल, गर्द आदि से बचना चाहिए.
- जिन लोगों को बार बार जुकाम होने की शिकायत हो उन्हें लगातार एंटी एलर्जिक दवाएं और नेजल स्प्रे इस्तेमाल करना चाहिए.
- इन्हेलर का प्रयोग लगातार करना चाहिए.
- हर साल जुलाई अगस्त में इंफ्लुएंजा की नयी वैक्सीन लगवा लेना चाहिए.
- डॉक्टर से सलाह लेकर न्यूमोकोकल निमोनिया की वैक्सीन भी शेडयूल के अनुसार लगवा लेना चाहिए.
- जब कभी जुकाम, खांसी, बुखार इत्यादि हो तो तुरंत डॉक्टर को दिखाकर उसका इलाज करना चाहिए, क्योंकि सामान्य जुकाम खांसी के बाद भी सांस के मरीजो की हालत काफी बिगड़ जाती है.
- पीक फ्लो मीटर द्वारा अपनी सांस की जांच करते रहना चाहिए और यदि रक्त में ऑक्सीजन का लेवल कम रहता हो तो पल्स ऑक्सीमीटर द्वारा रक्त में ऑक्सीजन की जांच भी करते रहना चाहिए. इन दोनों पैरामीटर से यह मालूम पड़ जाता है की बीमारी कब खतरनाक स्थिति में जा रही है.
- सांस के पुराने मरीजों को अपने पास नेबुलाइजर मशीन रखना चाहिए जिसको कि वह किसी भी इमरजेंसी में प्रयोग कर सकते हैं. जब सांस की परेशानी ज्यादा होती है तो इनहेलर काम नहीं करते क्योंकि सांस की नली अधिक सिकुड़ जाने की वजह से दवा अंदर तक पहुंच नहीं पाती है. ऐसे में नेबुलाइजर ही काम करता है.
- जिन लोगों के रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार कम रहती है या समय समय पर बहुत कम हो जाती है उन्हें अपने घर पर ऑक्सीजन का इंतजाम रखना चाहिए. इसके लिए ऑक्सीजन सिलेंडर या ऑक्सीजन कंसंट्रेटर कोई भी एक चीज रख सकते हैं.
- सांस के मरीजो को देसी पुड़िया बेचने वाले ठग हकीमों से सावधान रहना चाहिए. यह लोग अपनी पुड़ियों में स्टेरॉयड दवाओं की बहुत अधिक मात्रा मिला देते हैं जिससे मरीज को तुरंत आराम मालूम होता है. फिर मरीज इन का आदी हो जाता है और ये दवाऐं लंबे समय में बहुत नुकसान पहुंचाती हैं.
- जिन लोगों को सांस की अधिक बीमारी होती है उन्हें और उनके घरवालों को यह समझ लेना चाहिए कि इस बीमारी में इलाज केवल कामचलाऊ (palliative) होता है, और मरीज़ को जब भी अधिक परेशानी हो उसे अस्पताल में भर्ती कर के इलाज कराना होता है. इस प्रकार के मरीजों का जीवन इसी प्रकार से कटता है.
सांस के मरीजों और उनके परिवार वालों को यह भी भली भांति समझ लेना चाहिए की फेफड़ों की इस बीमारी को खत्म नहीं किया जा सकता, बल्कि यह तो हल्के हल्के बढ़ती है और फेफड़े समय के साथ अधिक कमजोर होते जाते हैं. फेफड़ों की ताकत बनाए रखने में कुछ सांस के व्यायाम तथा सीने, कंधे और पेट की मांसपेशियों के व्यायाम लाभदायक होते हैं. सांस के मरीजों को दूध और दूध से बनी चीजें, अंडे, दालें, ताजी सब्जियां तथा ताजे मीठे फल लाभ करते हैं (अंगूर, अनार, संतरा, कीवी इत्यादि खट्टे फल न लें और फलों को फ्रिज में न रखें ) . अधिकतर लोगों में यह अंधविश्वास होता है कि दूध पीने से बलगम बनता है ऐसा बिल्कुल नहीं है.